Why this Karthikeya 2 review looks beyond Bollywood vs South films debate? (Hindi)

Suryanshi Pandey
4 min readAug 18, 2022

Karthikeya 2,

पहले राम और अब श्याम को भी मलिन करने चली राजनीति....

कल एक दक्षिण भारत की फ़िल्म की स्क्रीनिंग के लिए मुझे invitation आया. वजह दो रही- एक तो मैं पत्रकार, ऊपर से कृष्ण भक्त. फ़िल्म आधुनिक परिवेश में कृष्ण पर आधारित थी. यह फ़िल्म हिंदी बेल्ट में अच्छा कमा रही है.
फ़िल्म का मुख्य किरदार डॉक्टर है जो ईश्वर को पौराणिक और ऐतिहासिक अंशों के बीच के फासलों के बीच खोजने निकलता है. दिखाना तो यही चाहते थे लेकिन मेरे लिए ऐसा कुछ निकलकर आया नहीं.

कृष्ण के रास रचैया, चंचल चरित्र पर नहीं बल्कि फ़िल्म कृष्ण के राज्य करने की शैली, तर्क-वितर्क करने की कुशलता, उनके योग, युद्ध के बीच संतुलन करने की निपुणता को दर्शाने का प्रयास करती है. यह सराहनीय प्रयास कहा जाता अगर फ़िल्म अपने कुछ सीन के द्वारा पूरी तरह से एक प्रोपेगंडा फ़िल्म का रूप न लेती तो!

फ़िल्म में कुछ सीन ऐसे थे जो कृष्ण को सर्वश्रेष्ठ, सबसे प्रमुख भगवान और उनकी गौरव गाथा को बयां करने में लगी हुई थी. इस बीच एक ऐसा सीन भी आया जिसमें फ़िल्म का विलेन एक डॉक्टर को शंख के नुकीले हिस्से से गले में वार कर देता है. वह यह इसलिए करता है क्योंकि डॉक्टर विलेन से कहता है - "अरे! आप इतने बड़े नेता है, आप कहां इस चक्कर में पड़ गए कि वायरस का वैक्सीन कृष्ण के पास मिलेगा"

वो विलेन अपने शास्त्रों का तर्क देकर या फिर किसी भी तरह का कोई और धार्मिक तर्क देकर, अपने आपको तार्किक दिखा सकता था लेकिन डायरेक्टर ने कहा कि नहीं भाई, इसको मार डालो! इसकी हिम्मत कैसे हुई कि कृष्ण को लेकर यह कह रहा है. मतलब की जिस कट्टरवाद में सने इस्लाम के उन अंध भक्तोंं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई जाती है, हिंदू भी उसी तरह के कट्टरवाद के समर्थन में आएं?

आप प्रोपेगंडा के ख़िलाफ़ हैं, मगर आपके धर्म के समर्थन के नाम पर प्रोपेगंडा हो तो वो सही है?
मैं मानती हूं कि बॉलीवुड में कुछ फ़िल्मों में हिंदू धर्म को लेकर जितनी आलोचना हुई उतना और धर्म को लेकर नहीं रही. लेकिन उसकी वजह क्या यह नहीं है कि हिंदू धर्म असहिष्णुता का उदाहरण रहा है?

कृष्ण ने तो शिशुपाल द्वारा 100 अपमानित शब्दों के बाणों तक को झेला है, तो हल्की आलोचना पर भगवान के भक्त अपना आपा खोते दिखा रहे हो जो कृष्ण शिक्षा के आधार पर भी नहीं उतरता.

अपने धर्म को सर्वोपरि दर्शाने में यही नुक़सान होता है. इसलिए ही धर्म को अफ़ीम तक कहा जाता है क्योंकि राजनीति फिर चाहे वो इस्लाम में हो या अब हिंदू में, ऐसे धार्मिक जन-सैलाब का सहारा ले अपने आपको चमकाने में लग जाती है और वह काफ़ी हद तक सफल भी रहते हैं. मैं कृष्ण भक्त ज़रूर हूं लेकिन धर्म के नाम पर भ्रमित होने वालों में से नहीं हूं. मैंने तो यह फ़िल्म invitation पर देखी सिर्फ़ इसलिए क्योंकि मुझे जानना था कि कृष्ण पर ऐसी कौन सी फ़िल्म बनाई गई है, ज़रा चलकर मुआइना करते हैं.

दक्षिण भारत की यह फ़िल्म, बॉलीवुड की रक्षाबंधन, लाल सिंह चड्डा से भी बेहतर फिलहाल चल रही है. 15 करोड़ का खर्च हुआ था इस फिल्म को बनाने में और अब तक 35 करोड़ कमा गई है.

वो मुस्लिम किरदार और अभिनेत्री

अच्छा एक मुस्लिम किरदार है जिसको फ़िल्म में धार्मिक सौहार्द के लिए जगह दी गई और कुछ सीन बहुत प्यारे थे जैसे उसकी ईमानदारी, हज के प्रति निष्ठा, फिर एक सीन था जिसमें भगवा पटका और मुस्लिम का पठान पटका दोनों साथ मिलकर डूब रहे हीरो को खींचने का काम करते हैं. मगर एक सीन मुझे आपत्तिजनक लगा जहां मुस्लिम किरदार को टीका लगाए दिखाया- बुराई कुछ नहीं अगर वो अपनी मर्ज़ी से लगाए दिखता, ग़लत तब लगा जब वो बता रहा है "मैं मुसलमान हूं" फिर भी सामने वाला टीका लगा देता है.

यही नहीं इस फ़िल्म में जो महिला अभिनेता है, वह बहुत पढ़ी-लिखी दिखाई गई है लेकिन उसका रोल केवल इतना है कि मानो वह हर जगह हीरो को ही कहती रहती है-"tussi great ho! मुझे तो कुछ नहीं आता"

मुझे तो फ़िल्म जिस तरह से डायरेक्ट की गई, वो भी उतना पसंद नहीं आई. फिर भी यह फ़िल्म अच्छा कमा रही है. लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि इस फ़िल्म का जो पार्ट 1 है यानी कि Karthikeya, वो भी mythology और historical exploration पर है मगर वो काफ़ी rational तरह से बनाई गई थी. वह साउथ में सुपरहिट भी रही थी.

फ़िल्म देखें या नहीं

इससे बेहतर तो बॉलीवुड फ़िल्म है, कम से कम आजकल अभिनेत्रियों को केवल भोग-वस्तु की तरह तो नहीं दर्शाती. हां, कई फ़िल्में हैं जो आज भी वैसी ही बन रही है लेकिन यह ट्रेंड क्वीन फिल्म के बाद बदला. तेलुगु में भी ऐसी कई फ़िल्में हैं जहां लड़कियों का किरदार अच्छा है लेकिन उनको हिंदी में डब ही नहीं किया गया है.....बाहुबली मुझे बहुत पसंद आई थी.

All in all- even some South Indian films are being used to promote propaganda.💔

सुविचार

कृष्ण को पौराणिक नहीं बल्कि इतिहास का हिस्सा दिखाने का प्रयास रहा. अगर आपको पौराणिक और इतिहास के संबंध को ही समझना है तो बेहतर रहेगा कि आप उन धार्मिक या तार्किक philosophers को पढ़े जिन्होंने इतिहास और पौराणिक कथाओं पर रिसर्च की है. ईश्वर है कि नहीं, इसपर कई दशकों से तर्क-वितर्क होता आ रहा है, मगर अपने विश्वास को अंध विश्वास में कभी बदलने न दें. ज़िंदगी छोटी है, उसको प्रेम, शोध और मनुष्य के व्यक्तित्व के सही विकास में लगाएं. ❤️

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